एक बूँद ..जो सागर का अंश थी ! एक बार हवा के संग बादलों तक पहुँच गई। इतनी ऊँचाई पाकर उसे बड़ा अच्छा लगा। अब उसे सागर के आँचल में कितने ही दोष नज़र आने लगे।
लेकिन अचानक ..एक दिन
बादल ने उसे ज़मीन पर एक गंदे नाले मेँ पटक दिया।
एका एक उसके सारे सपने, सारे अरमां चकनाचूर हो गए।
ये एक बार नहीं अनेकों बार हुआ। वो बारिश बन नीचे आती, फिर सूर्य की किरणें उसे बादल तक पहुँचा देतीं।
अब उसे अपने सागर की बहुत याद आने लगी..!

उससे मिलने को वो बेचैन हो गई; बहुत तड़पी, बहुत तड़पी…
फिर.. एक दिन सौभाग्यवश एक नदी के आँचल में जा गिरी। उस नदी ने
अपनी बहती रहनुमाई में उसे सागर तक पहुँचा दिया।
सागर को सामने देख बूँद बोली –
हे मेरे पनाहगार सागर ! मैं शर्मसार हूँ। अपने किये कि सज़ा भोग चुकी हूँ। आपसे बिछुड़ कर मैं एक पल भी शांत ना रह पाई। दिन-रैन दर्द भरे आँसू बहाए हैं; अब इतनी प्रार्थना है कि आप मुझे अपने पवित्र आँचल मेँ
समेट लो !
सागर बोला – बूँद ! तुझे पता है तेरे बिन मैं कितना तड़पा हूँ ! तुझे तो दुःख सहकर एहसास हुआ।
लेकिन मैं… मैं तो उसी वक़्त से तड़प रहा हूँ जब तूने पहली बार हवा का संग किया था। तभी से

तेरा इंतज़ार कर रहा हूँ… और जानती है उस
नदी को मैँने ही तेरे पास भेजा था। अब आ ! आजा मेरे आँचल मेँ !
बूँद आगे बढ़ी और सागर में समा गई । बूँद सागर बन गई।
ये बूँद कोई और नहीं; हम सब ही वो बूँदे है, जो अपने आधारभूत सागर उस परमात्मा से बिछुड़ गई हैं। इसलिए ना जाने कितने जन्मों से भटक रहे हैं… और वो ईश्वर ना जाने कब से हमसे मिलने को तड़प रहे है।।