एक बार गुरु नानक देव जी मरदाने के साथ किसी नगर को गए। वहाँ सारे नगर वासी इकठे हो गए।
वहाँ एक महिला श्री गुरु नानक देव जी से कहने लगी- महाराज मैंने तो सुना है, आप सभी के दुःख
दूर करते हो। मेरे भी दुःख दूर करो, मैं बहुत दुखी हूँ।
मैं तो आप के गुरुद्वारे में रोज 50 रोटी अपने घर से बना कर बाँटती हूँ, फिर भी दुखी हूँ।
गुरु नानक देव जी ने कहा कि तू दुसरो का दुःख अपने घर लाती हो इस लिए दुखी हो।
वो कहने लगी – महाराज, मुझे कुछ समझ नही आया मुझ अज्ञानी को ज्ञान दो।
गुरु नानक देव जी कहने लगे- तूं 50 रोटी गुरु द्वारे में बांटती हो पर बदले में क्या ले जाती हो?
वो कहने लगी- सिर्फ आप के लंगर के सिवा और कुछ भी नहीं।
गुरु नानक देव जी कहने लगे-लंगर का मतलब है एक रोटी खाना ओर अपने गुरु का शुकर मनाना।
पर तूं तो रोज बड़ी-बड़ी
थैलियों में दाल मखनी , मटर पनीर, रायता, खीर और 10-15 रोटी भर-भर के ले जाती हो। 3 तीन
दिन वो लंगर तेरे घर मे रहता है। तू अपने घर में सभी परिवार को वो खिलाती हो।
तू कहती है मेरे बच्चे घर पर हैं। उनके लिए, मेरे पोतों के लिए, मेरी बहू के लिए, मेरे बेटे के लिए इन
सब के लिए भरपूर लंगर ले जाना है। सब को ये कहकर तूं भर – भर कर लंगर अपने घर ले जाती है।
पर तूं ये नहीं जानती कि गुरु द्वारे में इस लंगर को चखने से कितनों के दुःख दूर होने थे। पर तूने
अपने सुख के लिए दुसरो के दुख दूर नही होने दिए। इसी लिए तू उनके सारे दुख अपने घर ले जाती
हो और दुखी रहती हो तेरे दुख तो दिन दुगने रात चोगुने बढ़ रहे हैं। उसमें हम क्या करें बता।
उसकी आँखों से परदा हट गया। वो जारो-जार रोने लगी और बोली- महाराज मैं अंधकार में डूबी
थी। मुझे क्षमा करो, अपने चरणों से लगाओ। अब से मैं एक ही चम्मच का लंगर करूंगी।
गुरु नानक देव जी ने समझाया कि इंसान अपने दुःख खुद खरीदता है पर उसे कभी पता नहीं
चलता। इसलिए लंगर में अपनी भूख जितना ही खाना चाहिए और लंगर प्रसाद को भर भर कर
घर कभी नहीं लाना चाहिए। प्रसाद का एक कण भी किरपा से भरपूर होता है।